निकाम श्याम सुंदरं भवांबुनाथ मन्दरं
प्रफुल्ल कंज लोचनं मदादि दोष मोचनं॥1॥
प्रफुल्ल कंज लोचनं मदादि दोष मोचनं॥1॥
प्रलंब बाहु विक्रमं प्रभो5प्रमेय वैभवं
निषंग चाप सायकं धरं त्रिलोक नायकं।
दिनेश वंश मंडनं महेश चाप खंडनं
मुनींद्र संत रंजनं सुरारि वृंद भंजनं॥2॥
मनोज वैरि वंदितं अजादि देव सेवितं
विशुद्ध बोध विग्रहं समस्त दूषणापहं।
नमामि इंदिरा पतिं सुखाकरं सतां गतिं
भजे सशक्ति सानुजं शची पति प्रियानुजं॥3॥
त्वदंघ्रि मूल ये नरा: भजन्ति हीन मत्सरा:
पतंति नो भवार्णवे वितर्क वीचि संकुले।
विविक्त वासिन: सदा भजंति मुक्तये मुदा
निरस्य इंद्रियादिकं प्रयांति ते गतिं स्वकं॥4॥
तमेकमद्भुतं प्रभुं निरीहमीश्वरं विभुं
जगद्गरुं च शाश्व तं तुरीयमेव मेवलं।
भजामि भाव वल्लभं कुयोगिनां सुदुर्लर्भ
स्वभक्त कल्प पादपं समं सुसेव्यमन्वहं॥5॥
जगद्गरुं च शाश्व तं तुरीयमेव मेवलं।
भजामि भाव वल्लभं कुयोगिनां सुदुर्लर्भ
स्वभक्त कल्प पादपं समं सुसेव्यमन्वहं॥5॥
अनूप रूप भूपतिं नतोहमुर्विजा पतिं
प्रसीद मे नमामि ते पदाब्ज भक्ति देहि मे।
पठंति ये स्वतं इदं नरादरेण ते पदं
प्रसीद मे नमामि ते पदाब्ज भक्ति देहि मे।
पठंति ये स्वतं इदं नरादरेण ते पदं
व्रजंति नात्र संशयं त्वदीय भक्ति संयुता:॥6॥
अर्थ :- भक्तों के हितकारी, कृपालु और अतिकोमल स्वभाव वाले! आपको मैं नमस्कार करता हूँ। जो निष्काम पुरुषों को अपना धाम देने वाले हैं ऐस आपके चरण-कमलों की मैं वन्दना करता हूँ। जो अति सुन्दर श्याम शरीरवाले, संसार-समुद्र के मन्थन के लिये मन्दराचलरूप, खिले हुए कमल के -से नेत्रों वाले तथा मद आदि दोषेां से छुडाने वाले हैं॥1॥
जिनकी भुजाएँ लंबी-लंबी और अति बलिष्ठ है, जिनके वैभव का कोई परिणाम नहीं है, जो धनुष, बाण और तरकश धारण किये हैं, त्रिलोकी के नाथ हैं, सूर्य कुल के भूषण हैं, शंकर के धनुष को तोडने वाले हैं, मुनिजन तथा महात्माओं को आनन्दित करने वाले हैं, दैत्यों का दलन करने वाले हैं, कामारि श्री शंकर जी से वन्दित हैं, ब्रह्मा देवगणों से सेवित हैं, विशुद्ध बोधस्वरूप हैं, समस्त दोषों को दूर करने वाले हैं, श्री लक्ष्मी जी के पति हैं, सुख की खानि हैं, संतों की एकमात्र गति हैं तथा शचीपति इन्द्र के प्यारे अनुज (उपेन्द्र) हैं, हे प्रभो! ऐसे आपको मैं नमस्कार करता हूँ और सीता जी तथा भाई लक्ष्मण के साथ आपको भजता हूँ॥2-3॥
जो लोग मद-मत्सरादि से रहित होकर आपके चरणों को भजते हैं, वे फिर इस नाना वितर्क-तरङ्गावलिपूर्ण संसार-सागर मे ंनहीं पडते तथा जो एकान्तसेवी महात्मागण अपनी इन्द्रियों का संयम करके प्रसन्न-चित्त से भवबन्धविमोचन के लिए आपका भजन करते हैं, वे अपने अभीष्ट पद को पाते हैं॥4॥
जो अति निरीह, ईश्वर और सर्वव्यापक हैं, जगत् के गुरु, नित्य, जाग्रदादि अवस्थात्रय से विलक्षण और अद्वैत हैं, केवल भाव के भूखे हैं, कुयोगियों को दुर्लभ हैं, अपने भक्तों के लिए कल्पवृक्षरूप हैं तथा समस्त (पक्षपातरहित) और सदा सुखपूर्वक सेवन करने योग्य हैं, ऐसे उन (आप) अद्भुत प्रभु को मैं भजता हूँ॥5॥
अनुपम रूपवान् राजराजेश्वर जानकीनाथ को मैं प्रणाम करता हूँ। मैं आपकी बार-बार वन्दना करता हूँ, आप मुझपर प्रसन्न होइये और मुझे अपने चरण-कमलों की भक्ति दीजिये। जो मनुष्य इस स्तोत्र का आदरपूर्वक पाठ करेंगे, वे आपके भक्ति-भाव से भरकर आपके निज पद को प्राप्त होंगे, इसमें कोई संदेह नहीं॥6॥
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